Wednesday, June 15, 2005

छन्द

[1]

ठोकर लगी जो कल रात मेरे पाँव में तो
मुझको सँभालने उतर आयी चाँदनी
उँगली पकड़ कर दिखाने लगी राह मुझे
पीछे-पीछे मैं चला औ आगे चली चाँदनी
बीते हुए वक्त में खिसक गया मन, तब
मेरे लिए हो गई अनारकली चाँदनी
और तनहाई ने कचोटा जब भक्त को, तो
गीत गुन–गुन के सुनाने लगी चाँदनी
***
[2]
राजनीति दरिया में डुबकी लगाने गयी
लौट के न आयी कल रात वाली चाँदनी
रंग–बदरंग अंग–अंग में उमंग, ये तो
लगती है और किसी लोक वाली चाँदनी
झूठ औ फरेब का सिंगार किये डोलती है
हो गयी भ्रमित 'भक्त' भोली–भाली चाँदनी
मान ले तू कहना औ आ जा घर चुपचाप
तुझसे न होगी करतूत काली, चाँदनी।।
***

दोहे
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सोना मिट्टी बन गया, मिट्टी बन गई माल।
फैलाया किस दुष्ट ने, ऐसा मायाजाल।।
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आज़ादी के बाद कुछ, ऐसा हुआ प्रयोग।
राजनीति में आ गए, ऐसे–वैसे लोग।।
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कविता के संसार में, होने लगा प्रपंच।
कवि–सम्मेलन हो गए, हैं भाँड़ों के मंच।।
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हो सरकारी काम यदि, तो न दिखाओ जोश।
नौ दिन तक चलते रहो, चलो अढ़ाई कोस।।
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अधिकारी कर्त्तव्य के प्रति होता अनजान।
उसके, आँखों की जगह, होते हैं बस कान।।
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-ठा॰ गंगाभक्त सिंह भक्त
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