Wednesday, June 15, 2005

वाणी वंदना

माँ! वीणा के तार सजा दे।
इस भारत-भू के कण-कण को
चन्दन सा महका दे ।


फैली जग में बड़ी निराशा,
टूट रही जन-जन की आशा।
तू आशा का दीप जलाकर
ज्योति-शिखा लहरा दे ।
माँ !............ ........।।


स्वार्थ सलिल का स्त्रोत सुखाकर,
मानवता को कण्ठ लगाकर।
भटकी तरुणाई को माँ तू
सच्ची राह बता दे ।
माँ !............ ........।।


कोई जग में रहे न भूखा,
दूर रहे, अति-वर्षा, सूखा
खेतों में फसलों के मिस
तू कंचन सा बरसा दे ।
माँ !............ ........।।


स्वस्थ काव्यों की रचना हो,
प्रगतिमयी हर संरचना हो
काव्यमंच पर सत्यम्-शिवम्
सुन्दरम को बिखरा दे ।
माँ !............ ........।।


क्लांत मनुजता को गति दे दे,
शंखनाद कर क्रान्ति मचा दे
युग-युग के इस थके विहग के
पंखों को सहला दे ।
माँ !............ ........।।
***

-ठा॰ गंगाभक्त सिंह भक्त

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