[1]
कारगर शिकारी की आँख के इशारे हैं ।एक तीर से उसने कितने लोगा मारे हैं।।
ढूँढ़ते हो क्या इनमें, आज तक इन आँखों ने।
ख़्वाव ही सजाए हैं ख़्वाब ही सँवारे हैं।।
हिन्दू है न मुस्लिम है, सिक्ख है न ईसाई।
इक पवित्र दरिया है, जिसके चार धारे हैं।।
लोग तो बदी करके भी गुजार लेते हैं।
इस जह़ान में हम तो नेकियों के मारे हैं।।
बेहयाई का रोना किसके आगे रोया जाए।
इस हमाम में ऐ भक्त बेलिबास सारे हैं।।
***
[2]
तनहाई में बैठ के रो लो।
सबसे मन का भेद न खोलो।।
आँखें सच-सच बोल रही हैं।
दर्पन से तुम झूठ न बोलो।।
सूरज सर पर आ पहुँचा है।
अब तो जागो आँखें खोलो।।
रहते हो क्यों चुप चुप-चुप चुप।
बोलो बोलो कुछ तो बोलो।।
या तो किसी को अपना बना लो।
या फिर भक्त किसी के हो लो।।
***
[3]
पने चारों ओर हैं फैले अन्धे गूँगे।
तने कभी देखे न सुने थे अन्धे बहरे गूँगे।।
लिखने वाला कितने दुख से ये इतिहास लिखेगा।
हम हर नाजुक समय पे हो गए अन्धे बहरे गूँगे।।
हमसे बढ़कर कौन भला है अन्धा बहरा गूँगा।
हमने सर आँखो पे बिठाए अन्धे बहरे गूँगे।।
कैसे कैसे हिम्मत वाले निकले सीना ताने।
एक ही पल में हो गए कैसे अन्धे बहरे गूँगे।।
भक्त ये किन लोगों से तुमने बाँधी हैं आशाएँ।
देखेंगे कब खैर के सपने अन्धे बहरे गूँगे।।
***
[4]
वाणी में अमृत रस घोलो।
अच्छा सोचो अच्छा बोलो।।
कविता की सरिता के तट पर।
मन की मैली चादर धोलो।।
पिछले पहर में हर आहट पर।
घर के दरवाजे मत खोलो।।
जीवन है इक रात अँधेरी।
मेरी मानो थोड़ा सोलो।।
भक्त की कोमल निर्मल बातें।
बातों को फूलों से तौलो।।
और भी घर हैं इस बस्ती में।
और किसी के भी घर होलो।।
***
-ठा॰ गंगाभक्त सिंह भक्त
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